Maa Varahi Devi Temple Devidhura Champawat Uttarakhand
मां बाराही देवी मंदिर देवीधुरा चंपावत


Maa Varahi Devi Temple Devidhura Champawat Uttarakhand : हिमालय की गोद में खूबसूरत पहाड़ी वादियों के बीच चंपावत जिले के लोहाघाट कस्बे से लगभग 45 किलोमीटर दूर लोहाघाट-हल्द्वानी मोटर मार्ग में स्थित है देवीधुरा गाँव। इसी देवीधुरा में समुद्र तल से लगभग 6500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है मां बाराही देवी का भव्य मंदिर। देवीधुरा अपने अलौकिक प्राकृतिक सौंदर्य , मां बाराही देवी मंदिर व प्रसिद्ध बग्बाल मेले (Bagwal Mela) के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। बग्बाल मेला प्रतिवर्ष मां बाराही देवी शक्तिपीठ के प्रांगण में आयोजित किया जाता है। यह मेला श्रावण शुक्ल एकादशी यानि रक्षाबंधन के दिन विधिवत पूजा -अर्चना के साथ आरंभ होकर भाद्र कृष्ण द्वितीय तक चलता है।
बग्वाल मेले का मुख्य आकर्षण है पत्थरों से खेला जाने वाला युद्ध
बग्बाल मेले का मुख्य आकर्षण बग्वाल युद्ध या पाषाण युद्ध (यानि पत्थरों से खेला जाने वाला युद्ध) होता है जो कि श्रावणी पूर्णिमा को आयोजित किया जाता है। इस प्रसिद्ध मेले को देखने के लिए देश के कोने – कोने से लोग यहां मां बाराही के मंदिर तक पहुंचते हैं । बच्चे , नौजवान , बुजुर्ग सब मेले में बड़े उत्साह व उमंग के साथ भाग लेते हैं। आस्था और विश्वास का यह पाषाण युद्ध मां बाराही मंदिर के प्रांगण में बड़े जोश व पूरे विधि विधान के साथ तथा पूरी तैयारी के साथ खेला जाता है। यह अपने आप में एक अनोखा व अद्भुत मेला है जो शायद ही दुनिया में और कहीं खेला जाता होगा। एक प्रचलित कथा के अनुसार हिरणाक्ष एक बार माता पृथ्वी को जबरदस्ती पाताल लोक ले जा रहा था। तब पृथ्वी ने भगवान विष्णु को मदद के लिए पुकारा । पृथ्वी की करुण पुकार सुनकर भगवान विष्णु ने वाराह का रूप धारण किया और पृथ्वी को बचाया। वराह की जिस आत्मशक्ति ने हिरण्याक्ष का वध करके पृथ्वी को बचाया। वही माँ वाराही कहलायीं । माँ वाराही माँ जगदम्बा का ही एक रूप हैं । माँ वाराही आदिकाल से गुफा गहवर में विराजमान होकर भक्तजनों को दर्शन देकर उनकी मनोकामना पूर्ण करती आ रही हैं और उनकी रक्षा करती हैं ।
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बग्बाल मेले में सांगी पूजन का बड़ा महत्व है।
इस बग्बाल मेले की शुरुआत श्रावण शुक्ल एकादशी से होती है। बग्बाल मेले का मुख्य आकर्षण बग्वाल युद्ध या पाषाण युद्ध (यानि पत्थरों से खेला जाने वाला युद्ध) होता है। इस युद्ध में भाग लेने वाले महर एवं फड़त्यालों के क्षत्रिय कुलों के चारों खामों तथा सातों थोकों के मुखिया लोग मां बाराही देवी के मंदिर के पुजारी को साथ लेकर नियत मुहूर्त में मंदिर में स्थित देवी के डोले का पूजन करते हैं जिसे सांगी पूजन कहा जाता है। सांगी पूजन से पूर्व सातों थोकों के मुखिया बाराही देवी के मंदिर में सुरक्षित ताम्रपेटिका को भण्डा़र गृह से उतारकर नंद घर ले जाते हैं । इस ताम्रपेटिका में तीन खाने बने है जिसमें मां बाराही , मां महाकाली व मां महासरस्वती की प्रतिमायों बंद रहती हैं। अगले दिन मूर्तियों को स्नान कराया जाता है। मंदिर के पुजारी व बांगर जाति के व्यक्ति की आंखों पर काली पट्टी बांधकर मूर्तियों को पर्दे के पीछे निकालकर दुग्ध स्नान कराया जाता है। फिर इनका श्रृंगार करके पुनः इनको ताम्रपेटिका में बंद कर डोले के रूप में सजाकर समीप ही स्थित मुचकुंद आश्रम ले जाया जाता है। मुचकुंद आश्रम की परिक्रमा करने के बाद उन्हें वापस मंदिर में रख दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि देवी की मूर्ति को खुली आंखों से देखने में व्यक्ति अंधा हो जाता है इसलिए माता की मूर्ति का स्नान व पूजा अर्चना आंखों में पट्टी बांधकर ही की जाती है। इसके बाद वो लोग परस्पर एक दूसरे को पौणमासी के दिन बग्वाल में भाग लेने के लिए आमंत्रित करते हैं। पूर्णमासी के दिन चारों खामों के मुखिया प्रात: काल देवी के मंदिर में आकर देवी की पूजा अर्चना करते हैं तथा देवी का प्रसाद लेकर अपने- अपने गांव में जाते हैं तथा वहां पर उस प्रसाद का वितरण करते हैं।
ध्यौका छन्तोलिये और पत्थर अपने साथ लेकर आते हैं।
बग्वाल में भाग लेने के इच्छुक ध्यौका (देवी को समर्पित लोग) लोगों को इस समय अवधि में शुद्ध एवं संयमित जीवन बिताना होता है। उनके लिए तवे पर बनी रोटी एवं मांस मदिरा के सेवन का प्रतिबंध होता है। इसके बाद चारों खामों के ध्यौका (बग्वाल खेलने वाले लोग ) अपने-अपने मुखियाओं के नेतृत्व में अपने अपने गांव से परंपरागत लोक वाद्यौ , ढोल , नगाड़े , शंख , घड़ियाल आदि बाजों को बजाते हुए निर्धारित मार्गो से देवी के मंदिर पहुंचते हैं । ये लोग अपने साथ पत्थरों से बचने के लिए रिंगाल या बांस से बनाए गए छन्तोलिये (ढाल) तथा मारने के लिए पत्थर साथ लेकर जाते हैं। घरों से प्रस्थान करने से पहले घर की महिलाएं इन लोगों की आरती उतारती हैं तथा इनके सिर के चारों ओर अक्षर बिखेरकर मंगलकामनाएं कर उनके हाथों में पत्थर के गोल – गोल टुकड़े पकड़ती हैं। मंदिर पहुंचने के बाद यह लोग देवी मां के मंदिर की परिक्रमा करने के बाद रणक्षेत्र की तरफ निकलते हैं। उसके बाद रणक्षेत्र खोलीखाण-दुबाचौड़ नामक मैदान के पांच फेरे लेकर अपने – अपने निर्धारित स्थानों पर खड़े हो जाते हैं। जहां पर पूर्वी कोण पर गहड़वाल खाम , पश्चिमी कोण पर वालिग खाम , उत्तरी कोण पर लमगडिया खाम तथा दक्षिणी कोण पर चम्याल योद्धा अपना मोर्चा संभालते हैं। फिर यह चारों खाम दो धड़ों में बंट जाते हैं पहला महर तथा दूसरा फड़त्याल। दोनों पक्षों को युद्ध के लिए सावधान करने हेतु मारू बाजों को बजाया जाता है तथा पुजारीजी के शंख बजाते ही युद्ध आरंभ हो जाता है। फिर शुरू होता है भयंकर पाषाण युद्ध जिस में भाग लेने वाले वीर पुरुषों में अजीब सा उत्साह रहता है । कई बार इन पाषाणों से उनको गहरी चोट भी लगती है। लेकिन उसकी परवाह किए बगैर माता का स्मरण कर ये वीर युद्ध में डटे रहते हैं।
लोककथा (Story Of Maa varahi Devi Temple Devidhura Champawat)
बग्वाल मेले के संबंध में एक लोककथा भी प्रचलित हैं । प्राचीन समय में इस दिन यहां पर प्रत्येक धड़े के द्वारा बारी-बारी से नर बलि दी जाती थी। लेकिन चम्याल खाम की एक बुढ़िया ने अपने कुल के एक मात्र बचे अपने पौत्र को बचाने के लिए कठोर तपस्या करके मां बाराही को इस बात के लिए राजी कर लिया था कि किसी प्रकार से एक मनुष्य की बलि के बराबर रक्त का प्रबंध हो जाने पर वह बलि के लिए आग्रह नहीं करेगी। बुढ़िया के अनुरोध पर महर और फर्त्याल दोनों धड़ों के चारों खामों के प्रमुख इस बात के लिए राजी हो गए। इसी रक्त की पूर्ति के लिए बग्वाल (Bagwal Mela) का प्रतिवर्ष आयोजन किया जाता है। लगभग एक मनुष्य के रक्त के बराबर रणक्षेत्र में रक्त प्रवाहित हो जाने का अनुमान लगाकर पुजारी जी मजबूत छत्रक की आड़ में तांबे का छत्र एवं चंबर लेकर युद्ध क्षेत्र के मध्य में जाकर युद्ध विराम का शंखनाद कर देते हैं और इसी के साथ यह पाषाण युद्ध समाप्त हो जाता है । चारों तरफ मां बाराही के जय जयकार के नारे लगते हैं और सभी योद्धा युद्ध स्थल के बीच में आ कर एक – दूसरे के गले लग कर एक दूसरे को उत्सव की सफलता की बधाई देते हैं और मैदान से विदा लेते हैं। ऐसा माना जाता है कि मैदान में बहने वाले रक्त से या उनके इस बलिदान से देवी मां अति प्रसन्न होती हैं और उन्हें सुख , शांति , समृद्धि का आशीर्वाद देती हैं। पूरी रात देवी के मंदिर में जागरण होता है और अगले दिन संदूक में बंद देवी को लेकर डोली में सजाकर शोभायात्रा निकाली जाती हैं जो निकटस्थ मचवाल मंदिर तक जाकर वहां पर देवी के भाई ऐड़ी से भेंट करके वापस आ जाती हैं। बग्बाल मेले (Bagwal Mela) का अपना एक पौराणिक महत्व है जिसमें पाषाण युद्ध कला में प्रवीण योद्धा अपने कौशल का प्रदर्शन करते हैं। यह मेला अपने आप में एक अनुपम छटा प्रस्तुत करता है । जहां बग्वाल मेले के साक्षी बनने के लिए केवल भारत वर्ष से ही नहीं वरन विदेशों से भी लोग उक्त दिवस को एकत्रित होते हैं। यह मां बाराही को पूर्ण रूप से समर्पित एक उत्सव है।
मां बाराही देवी मंदिर आने का सही समय (Best Time To Visit Maa varahi Devi Temple Devidhura Champawat)
पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण देवीधुरा में गर्मी का बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है। आप मार्च से जून तक फिर सितंबर से दिसंबर तक यहाँ आ सकते हैं । वैसे देवी माँ के दर्शन करने यहाँ वर्ष के किसी भी महीने में आया जा सकता है।
ध्यान में रखने योग्य बातें
देवीधुरा में मंदिर प्रशाशन द्वारा बनाये गये नियमों का पालन करें। जूते -चप्पल निर्धारित स्थान पर रखें। वर्षा होने पर यहाँ हल्की ठंड रहती हैं। इसीलिए गर्म कपड़े साथ में लाना न भूलें। अगर आप यहाँ एक – दो दिन रुकना चाहते हैं तो आने से पहले मंदिर के आस -पास या लोहाघाट , चम्पावत में कोई Hotel Book कर लीजिए। फोटोग्राफी के लिए एक अच्छा सा कैमरा अपने साथ अवश्य रखें।
कैसे पहुँचें मां बाराही देवी मंदिर ( How To Reach Maa varahi Devi Temple Devidhura Champawat)
कितने दिन के लिए आए (Suggested Duration)
मां बाराही देवी मंदिर में आप अपने हिसाब से अपना समय बिता सकते हैं।
क्यों आए मां बाराही देवी मंदिर
मौसम (Weather)
मां बाराही देवी मंदिर या चंपावत का तापमान गर्मियों में बहुत ज्यादा नहीं रहता हैं। मई और जून में भी इन जगहों का तापमान बहुत अधिक नही रहता हैं यानि यहाँ मौसम सुहाना रहता हैं। आप यहां मार्च से लेकर जून तक और सितंबर से लेकर दिसंबर तक कभी भी आ सकते हैं। यहाँ हल्की वर्षा होने पर और दिसंबर -जनवरी में ठंड रहती हैं। इसीलिए अगर आप इस वक्त यहां आ रहे हैं तो गर्म कपड़े साथ में लाना न भूलें। अगर आप यहाँ एक – दो दिन रुकना चाहते हैं तो आने से पहले कोई Hotel Book कर लीजिए। फोटोग्राफी के लिए एक अच्छा सा कैमरा अपने साथ अवश्य रखें। ट्रैकिंग के शौक़ीन अपने साथ एक अच्छी क्वालिटी का जूता या स्पोर्ट शू अवश्य रखें।